Saturday, 20 October 2018

दो जाम मेखाने के नाम

ऐ केसी तनहा पन से गुजर रहा हूं ।
आज तो ये जाम की प्यालियां भी जैसे बागी सी है ।
आज फिर किसी की यादों ने दील पे दस्तक दी है ।
ओर फिर से आखे नम सी हो रखी है ।
न जाने क्यूं आज ये सराब का नशा फिका हो गया ।
आज फिर गम ने घेर लिया है ।
आज आशु भी लफ्ज़ बन कर रो रहे है।

क्या बताएं जनाब आज-कल उजालों का दामन छोड़ दी या है।
बस अब य मेखाने की बुज ती हुई रोशनी से ही पयार हों गया है।
न जाने कब वो सूरज की रोशनी का दीदार किया था।
लम्बा समय हो गया उस रोशनी को देखे।

अब अंधेरी रात से ओर इस जाम की प्यालियां के साथ वकत बीत जाता है।
जनाब पहले मुझे लगता था की में अकेला हूं पर इस मेखान में बेठा हर एक इंसान
उजालों के फरेब का सिकार हुए हैं।

इसी लिए "माही"  के गए करी ऐ संग मेखाने का निर्वाण हो ई,
जलदी ,ओर जो उजालों के पीछे जय ता ज़िन्दगी हो ई नरक।

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2.1

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